Thursday, July 2, 2015

तड़पन

--- कुंदन अमिताभ ---

कोय डिबिया नेसी क॑
तैयारी करै छै
रात सं॑ टकराय क॑
अन्हार केरऽ सीना चीरै ल॑

त॑ कोय  कूढ़ी - कूढ़ी क॑ 
बाट जोहतं॑ रहै छै 
कि कोय ऐतै  इंजोरा करै ल॑
अन्हार क॑ भगाबै ल॑

कोय  तरसतं॑  रहै छै 
निरंतर बदलाव लेली
कारोबार ,घर, साथी तक बदलै ल॑
चाहै छै सब जड़ता तोड़ै ल॑

त॑ कोय  डरै  घबराबै  छै
ऐन्हऽ  बदलावऽ सं॑
जैन्हऽ  छै वैन्हे मं॑ खुश छै
वहीं सुरक्षित महसूस करै छै

कोय  ई बदलाव  होथैं 
महसूस करै छै
लेकिन  डरै छै 
बदलाव  क॑ स्वीकारै मं॑

त॑ कोय  ई बदलाव  दन्न॑
ध्यान भी नै दै छै
कहतं॑ रहै छै 
बदलाव  ऐन्हऽ त॑ ऐसनऽ कुछ नै

कुछ  ऐन्हऽ जरूर छै
जेकरा एहसास छै कि
सब कुछ बदली रहलऽ छै  पर
साथें कुछ अपरिवर्तनशील भी छै

बदलाव  लेली तड़पतं॑ हुअ॑ भी
परिवर्तन बीच अपरिवर्तनशील
क॑  जे पहचानै छै -वास्तव मं॑
ओह॑ मुक्त रहै छै  तड़पन सं॑ ।

Angika Poetry : Tarpan
Poetry from Angika Poetry Book : 
Poet : Kundan Amitabh
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Wednesday, July 1, 2015

बूतरू केरॊ मॊन


 बूतरू केरॊ मॊन  

--- कुंदन अमिताभ ---

बूतरू केरॊ मॊन
सहज होय छै
पानी ऐन्हॊ निच्छल
पानी ऐन्हॊ पारदर्शी

ओकरा जोन ज्ञानॊ 
के रंग सॆं भरलॊ जाय छै
वैन्हॆ रंग प्रतिविम्बित होय छै
ओकरॊ व्यवहार सॆं

ओकरा जोंय भय 
के रंग सॆं भरलॊ जाय छै
भय झलकतै
ओकरॊ व्यवहार सॆं

ओकरा जोंय गलत विचारॊ 
के रंग सॆं भरलॊ जाय छै
गलत विचार झलकतै
ओकरॊ व्यवहार सॆं

ओकरा जोंय अच्छा आदर्शॊ 
के रंग सॆं भरलॊ जाय छै
अच्छा आदर्श झलकतै
ओकरॊ व्यवहार सॆं

ओकरा जोंय महान गुण 
के रंग सॆं भरलॊ जाय छै
महान गुण झलकतै
ओकरॊ व्यवहार सॆं

ओकरा मॆं भरलॊ गेलॊ भल्लॊ रंग 
जीवन केरॊ गरमी पाबी पक्का होय छै
आरू एगॊ बूतरू आदर्श आरू जिम्मेदार 
नागरिक बनै वास्तॆ बड़ॊ होलॊ जाय छै

Angika Poetry : Bootroo Kerow Mon
Poetry from Angika Poetry Book : 
Poet : Kundan Amitabh
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सरंग सॆं उच्चॊ


 सरंग सॆं उच्चॊ  

--- कुंदन अमिताभ ---

कोय ठिक्के कहनॆ छै - 
धरती सॆं  भी भारी होय छै माय
धरती तॆं  गुस्साय भी जाय छै
पर  हर  हाल मॆं संतान के भल्लॊ 
सोचै छै - माय

कोय ठिक्के कहनॆ छै - 
सरंग सॆं  भी उँच्चॊ होय छै - बाबू
बाबू नै रहला पर लागै छै सरंग उठी गेलै
मुसीबत वक्तीं भी  हर हाल मॆं छत्रछाया  
बनैलॆं राखै छै - बाबू

कोय ठिक्के कहनॆ छै - 
हवा सॆं भी चपल होय छै मॊन
हवा  चलै के दिशा भी निश्चित होय छै
पर पल भर मॆं कोनॊ दिशा मॆं 
दौड़ै पारै छै - मॊन

कोय ठिक्के कहनॆ छै - 
धरती पर उगलॊ घास सॆं जादा होय छै हमरॊ चिन्ता
धरती पर उगलॊ घास छै तॆ अनगिनत  - पर सीमित छै
पर  अनगिनत आरू  असीमित छै
हमरॊ मनॊ के चिन्ता

कोय ठिक्के कहनॆ छै - 
माय - बाबू के सेवा  केरॊ धर्म अपनाय कॆ
मन कॆ स्थिर करी कॆ चिंता भगाय कॆ
सहज ढंगॊ सॆं जीलॊ 
जाबै पारै छै - जिनगी

Angika Poetry : Sarang Sein Uchchow
Poetry from Angika Poetry Book : 
Poet : Kundan Amitabh
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